Nitya KarmAs
सन्ध्यावन्दनम
प्रातः काल, दोपहर और प्रारंभिक शाम के समय सूर्य के अंतर्यामी, श्रीमन नारायण की पूजा को संध्यावंदन कहते है | गायत्री मंत्र का ध्यान/जप, जो वेदों का सार है और पानी का प्रदान, जिसको ‘अर्घ्य‘ कहते हैं, संध्यावंदन के मुख्य भाग हैं।
“वेद माता गायत्री”
“गायत्री” शब्द का मूल संस्कृत वाक्यांश “गायन्तम् त्रायते इति” में है जिसका अर्थ है कि यह मंत्र गायक को मृत्यु को जन्म देने वाले सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से बचाता है।
गायत्री मंत्र ऋग् वेद संहिता 3.62.10 में अपनी जगह पाता है।
गायत्री वेदों की माता है । गायत्री मंत्र सबसे शक्तिशाली मंत्र है । इसे त्रिपाद गायत्री कहते हैं जिसके तीन भाग हैं। प्रत्येक भाग में आठ अक्षर हैं । (“तत्सवितुर्” से “प्रचोदयात्” तक ) तैत्त्रीय आरण्यका 2.10 और 2.11 विस्तार से ब्रह्मयज्ञ, यज्ञोपवीतम् और संध्यावंदन के बारे मे बताता हा जो द्विजों द्वारा निष्पादित किया जाना चाहिए । उसमे यह भी निर्दिष्ट है कि प्रणव मन्त्र “ॐ” और 3 महाव्याहृतियाँ “भू:” ,”भुव:” और “सुव:” को हमेशा “गायत्री मन्त्र” के पहले उच्चारण करनी चाहिए। तो इस मंत्र ने निम्नानुसार सबसे शक्तिशाली रूप लिया:
ॐ भू: भुव: सुव: तत्सवितुर् वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् |
“भगवान सूर्य और उनकी महिमा पर ध्यान करें जिसने तीन आयामी ब्रह्मांड की सृष्टि की – “भूः” अर्थात् पृथ्वी, “भुवः“ अर्थात् वातावरण और “सुवः” अर्थात् वायुमंडल से परे, जो पूजा करने योग्य है, जो सभी पापों और अज्ञानता को हटाता है। वह हमारी बुद्धि को प्रकाशित करें। “
सूर्य के इस गायत्री मंत्र को भोर में “गायत्री”, दोपहर को “सावित्री” और शाम को “सरस्वती” कहते हैं। इसके तदनुसार हम संबन्धित देवियों के नमन के साथ प्रातः संध्या, माध्याह्निकम् और सायं संध्या करते हैं।
अगर एक ब्राह्मण परिवार में तीन पीढ़ियों से गायत्री न जपा गया हो तो उस परिवार का सदस्य “ब्राह्मण” नहीं सिर्फ “ब्राह्मण बंधु “कहा जाता है। यही नियम क्षत्रीय और वैश्य के लिए भी है जो क्षत्रिय बंधु और वैश्य बंधु क्रमशः बन जाते हैं।
तैत्त्रीय आरण्यका में कहा गया है :
उद्यन्तमस्तम् यत्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् |
सकलम् भद्रमश्नुते सावादित्यो ब्रह्मेति ||”
जो ब्राह्मण श्रद्धा के साथ सूर्योदय और सूर्यास्त पर चिंतन करते हुए गायत्री की उपासना करता है उसे परमानंद की प्राप्ति होती है क्योंकि
आदित्य ही परब्रह्म है।
मनुस्मृति 2.102 का कहना है:
पूर्वां सन्ध्याम् जपंस्तिष्ठन् नैशम् एनो व्यपोहति
पश्चिमाम् तु समासीनो मलम् हन्ति दिवाक्रुतम् ||
वह जो प्रातः संध्यावंदन करता है वह पिछली रात के दौरान किए गए अपराध के पापों से मुक्त होता है और वह जो यह पाठ शाम को पश्चिमी सूर्य के साथ करता है वह दिन के दौरान किए गए सारे पापों को नष्ट कर देता है।
विष्णु पुराण 2.8. (49 – 52) मे श्री पराशरा श्री मैत्रेय मुनि को समझाते हैं :
सन्ध्या काले च सम्प्राप्ते रौद्रे परम दारुणो
मन्देहा राक्षसा घोरा: सूर्य मिच्छन्ति खादितुम्
भयानक गोधूलि (दिन और दोपहर, दोपहार और शाम तथा रात और दिन के मिलन या संयोजन) के समय ‘मन्देहा’ नाम का एक राक्षस गण सूर्य को खाने के लिए आता है।
दोनों के बीच युद्ध शुरू होता है। यह प्राचीन काल में प्रजापति के अभिशाप के कारण होता है।
तत: सूर्यस्य तैर्युद्धं भवत्यत्यन्तदारुणम्
ततो द्विजोत्तमास्तोयं सन्ग्शिपन्ति महामुने
ॐ कार ब्रह्मसंयुक्तं गायत्र्या चाभिमन्त्रितम्
तेन दह्यन्ति ते पापा वज्रीभूतेन वारिणा “
इस दैनिक गोधूलि युद्ध के दौरान, “ओम” व गायत्री मंत्र का जप तथा द्विजा द्वारा दिया गया पानी का अर्घ्य “वज्र” नामक अस्त्र के रूप मे परिवर्तित हो जाता है जो दुष्ट राक्षसों को नष्ट करने में सूर्य की सहायता करता हैं।
यह कहा जाता है कि पानी का पहला अर्घ्य असुर के वाहन को नष्ट कर देता है, दूसरा अर्घ्य उनके अस्त्र का विनाश करता है और तीसरा अर्घ्य राक्षसों का संहार करता है।
लड़के व पुरुष जिनको उपनयनम् के समय गायत्री मंत्र का उपदेश हुआ हो, (इन्हे द्विजा कहते हैं) संध्यावंदन करना प्रारम्भ कर सकते हैं।
उपनयनम् के बाद द्विजा कईं कर्तव्य करने के हकदार हैं जिनमे संध्यावंदन सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य है।
## ब्राह्मण, क्षत्रीय व वैश्य ऊपर लिखे कर्तव्य के योग्य हैं।
प्रातः संध्या का उचित समय सूर्योदय से पहले है और सूरज दिखने तक जारी रखना चाहिए। माध्याह्निकम् का सही समय तब है जब सूरज हमारे सिर के ऊपर होता है, लगभग 12:00 बजे । सायं संध्या का समय है सूर्यास्त के पहले और सितारों के वृद्धि तक करते रहना चाहिए ।
मनुस्मृति 2.101 मे कहा गया है :
पूर्वां सन्ध्याम् जपांस्तिष्ठेत् सावित्रीम् आ-अर्कदर्शनात् |
पश्चिमाम् तु समासीन: सम्यग् ऋक्षविभावनात् || “
सुबह खड़े होकर सूरज दिखने तक सावित्री का जप करना चाहिए लेकिन शाम को पश्चिमी सूरज के साथ बैठकर सितारों के दिखने तक जप करते रहना चाहिए ।
ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वात् दीर्घमायुरवाप्नुयुः |
प्रज्ञाम् यशश्च कीर्तिम् च ब्रह्मवर्चसमेव च ||
प्राचीन संतों ने लंबे संध्या प्रार्थना से लंबे जीवन, प्रसिद्धि, बुद्धि और आध्यात्मिक श्रेष्ठता प्राप्त की है।
यह घर के साफ फर्श पर या आंगन मे किया जा सकता है जहाँ से सुबह व शाम का सूरज दिखाई दें। यह घर के पूजा गृह मे भी किया जा सकता है।
गृहे त्वेकगुणासन्ध्या गोष्ठे दशगुणास्मृता |
शतसाहस्रिका नद्याम् अनन्ताविष्णु सन्निधौ ||”
सांध्यवंदनम् का प्रभाव गोशाला, नदी के तट पर और भगवान के मंदिर में क्रमशः दस गुणा, एक लाख गुणा और अनगिनत बार अधिक है । इसलिए इन स्थानों में सांध्यवंदनम् करने के हर अवसर का उपयोग करना चाहिए।
कृपया “मेरा सांध्यवंदनम्” आइकन पर क्लिक करके अपने व्यक्तिगत पूरी प्रक्रिया पाइए।
सांध्यवंदना प्रक्रिया के दो भाग हैं ।
1 ) पूर्व भाग और 2) उत्तर भाग
1) पूर्व भाग में आचमनम्, अंगवन्दनम्, प्राणायामम्, संकल्पम्, प्रोक्षणम्, प्राशनम्, पुनर् मार्झनम्, अर्घ्य प्रदानम्, आत्म अनुसन्धानम्, नवग्रह/केशवादि तर्पणम् जैसे परिशोधक कर्म हैं ।
2) उत्तर भाग के मुख्य अंग हैं गायत्री जप संकल्प, गायत्री आवाहनम्, गायत्री जप न्यासम्, गायत्री ध्यानम्, गायत्री जप, उपस्थानम्, दिग्देवता वन्दनम्, दिग् वन्दनम्, सूर्य नारायण वन्दनम्, क्षमा प्रार्थना और अभिवादनम्.
सांध्यवंदनम् के मंत्रों में जातियों और उपजातियों के अनुसार भिन्नता व असमानता दिखाई देती है। कृपया अपने व्यक्तिगत जाति विवरण के साथ अपनी सदस्यता रजिस्टर करें और फिर “मेरे संध्यावंदन” पर क्लिक करके अपनी पूरी संध्यावंदन प्रक्रिया पाएँ।
यदि कोई सही समय पर सांध्यवंदनम् न कर सकें तो प्रायश्चित मंत्र – “कालातीत प्रायश्चित्तार्थ अर्घ्य प्रदानम् करिष्ये” कहकर संध्यावंदन कर सकते हैं। यह केवल एक अपवाद है और सुविधाजनक नियम नहीं है।
अगर किसी को दोपहर मे समय नहीं मिलता है तो वह व्यक्ति सुबह प्रातः संध्या के बाद माध्याह्निकम् कर सकता है।
अगर घर में मौत या बच्चे के जन्म के कारण कोई व्यक्ति अशुद्ध हो, तो वह मन मे मंत्र कहते हुए अर्घ्यप्रदान तक संध्यावंदन कर सकता है।
अगर एक व्यक्ति बहुत बीमार हो तो उसे कम से कम गायत्री-जप अवश्य करना चाहिए ।
ध्यान आज के हर बीमारी का दवा है। इसे पाने के लिए हमे इधर- उधर दौड़ने की ज़रूरत नहीं है। हमारे अंदर एक चिकित्सक है और वह है हमारा प्राण (जीवन शक्ति). संध्यावंदन मे योग और ध्यान के तकनीक शामिल हैं। संध्यावंदन, शक्तिशाली गायत्री मंत्र के साथ हमारे प्राण, तन और मन को एक अनुशासित ढंग से निर्देशित करता है।
Simple meanings for sandhyAvandana mantras.
- Achamanam:
ॐ अच्युताय नम: Om achyutAya nama:
ॐ अनन्ताय नम: Om anantAya nama:
ॐ गॊविन्दाय नम: Om gOvindAya nama:
angavandanam:
ॐ कॆशवाय नम: Om kEshavAya nama: (touch right cheek with right thumb)
ॐ नारायणाय नम: Om nArAyaNAya nama: (left cheek with right thumb)
ॐ माधवाय नम: Om mAdhavAya nama: (right eye with right ring finger)
ॐ गॊविन्दाय नम: Om gOvindAya nama: (left eye with right ring finger)
ॐ विष्णवॆ नम: Om viSHNavE nama: (right nostril with right index finger)
ॐ मधुसूदनाय नम: Om madhusoodanAya nama: (left nostril with right index finger)
ॐ त्रिविक्रमाय नम: Om trivikramAyanama: (right ear with right little finger)
ॐ वामनाय नम: Om vAmanAya nama: (touch left ear with right little finger)
ॐ श्रीधराय नम: Om shreedharAya nama: (right shoulder with right middle finger)
ॐ हृषीकॆशाय नम: Om hRuSheekEshAya nama:(shoulder with right middle finger)
ॐ पद्मनाभाय नम: Om padmanAbhAya nama: (navel with right four fingers)
ॐ दामॊदराय नम: Om dAmOdarAya nama: (centre of the head with all five fingers)
This is a purificatory mantra that cleanses one of physical and mental impurities and diseases. I propitiate achyuta, ananta, govindA, etc.
2. PrANAyamam:
ॐ भू: ॐ भुव: ऒगुम् सुव: ॐ मह: ॐ जन: ॐ तप: ऒगुम्सत्यम्.
ॐ तत् स॑वि॒तुर्वरे॓ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि धियो॒ यो न:॑ प्रचो॒दया॓त् ।
ॐ आपो॒ ज्योती॒रसो॒ ऽमृत॒ं ब्रह्म॒ भूर्भुव॒स्सुव॒रोम्
Om bhoo: bhuva: Ogum suva: Om maha: Om jana: Om tapa: Ogum satyam
Om tat saviturvarENyam bhargO dEvasya dEvasya dheemahi dhiyO yO na: prachOdayAt.
Om ApO jyOtirasO amrutam brahma bhoorbhuvassuvarOm
- First prANAyAma mantra consists of salutations to the myriad of God’s creations: – All these seven lokas (7 vyAhRutis) namely the bhoolOka, bhuvarlOka, suvarlOka, maharlOka, janalOka, tapOlOka and satyalOka are the manifestations of the BrahmaN denoted by the praNava “Om”.
- Second mantra is gAyatri mantra: – We meditate on the resplendent Lord with a transcendental form who is divine and resides inside the sun and directs our mind and intellect towards Him.
- Third prANAyama mantra is called gAyatree shiras mantra which is a re-iteration of the first mantra. This denotes the Supreme Lord denoted by praNava Om is the indweller and controller of water (Apah), fire (jyOti), taste (rasa), nectar (amRutam), BrahmA, Bhooh, Bhuvah and suvah.
Sage YAgyavalkya says that he who controls the breath and contemplates on the seven vyAhrutis, salutes all the worlds and acquires the strength to move around all these worlds. Uttering the gAyatri shiras mantra relieves one from bonds of samsAra. Breath control increases the longevity of the practicant.
3. Sankalpam
This is positive statement declaring the astrological time and historical place in which the karma is being performed.
Mama upAtta samasta duritakshayadvArA Shree ParamEshvara Preetyartham :- I perfom these rituals as I invoke ParamEshwara’s grace to destruct all my accumulated sins.
Shree bhagavat AgyayA bhagavatkainkarya roopam: – I perform these rituals as a decree of BhagavAn and as a service to Him.
Shree bhagavat AgyayA shreeman nArAyaNa preetyartham:- I perform these rituals as a decree of BhagavAn and for His pleasure.